व्रत अर्थात् किसी विशेष दिन भोजन त्याग कर
या केवल फलाहार आदि पर रहकर उपवास रखते हुए
हठपूर्वक शरीर सुखाने को ही आजकल "व्रत"
माना जाता है। दरअसल व्रत का यह गलत अर्थ लोगों ने
अपनी सुविधानुसार गढ़ लिया है क्योंकि उन्हें व्रत के
सही अर्थ का ज्ञान नहीं है। देव दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें सम्मुल्लास में व्रत की इस
भ्रान्ति का पुरजोर विरोध किया है। महर्षि दयानन्द
लिखते हैं ”गर्भवती या नवविवाहिता स्त्री, लड़के
वा युवा पुरुषों को तो कभी उपवास नहीं करना चाहिए।
जो भूख में नहीं खाते या बिना भूख के भोजन करते हैं वे
दोनों रोग सागर में गोते खाकर दुःख जाते हैं। भ्रान्तियों के कारण भूख से पीडि़त होने पर भी भोजन
इसलिए ना किया जाये कि विशेष दिन
वा एकादशी आदि के दिन अन्न भोजन में पाप बसते हैं
या किसी विशेष दिन उपवास ना करने या भोजन खाने से
कोई देवता नाराज हो जायेगा। भूख से पीडि़त होकर कष्ट
पाने का क्या लाभ ? घर में अन्न होते हुए भी भूखों मरना पाप है। अब प्रश्न उठता है कि यदि भूखे
रहकर उपवास रखना व्रत नहीं है तो व्रत किसे कहते हैं।
यजुर्वेद में व्रत की बहुत सुन्दर परिभाषा दी गई है- अग्ने-
व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तच्छकेयं तन्मे राध्यताम। इदं
अहं अनृतात् सत्यम् उपैमि।। यजु. 1/5 अर्थात्, हे
अग्निस्वरूप व्रतपते सत्यव्रत पारायण साधक पुरूषों के पालन पोषक परमपिता परमेश्वर! मैं भी व्रत धारण
करना चाहता हूँ। आपकी कृपा से मैं अपने उस व्रत का पालन
कर सकूँ। मेरा यह व्रत सफल सिद्ध हो। मेरा व्रत है
कि मैं मिथ्याचारों को छोड़ कर सत्य को प्राप्त
करता हूँ। इस वेद मंत्र में परमपिता परमेश्वर को व्रतपते
कहा गया अर्थात् सत्याचरण करने वाले सदाचारियों का पालक पोषक रक्षक कहा गया।
सत्यस्वरूप ईश्वर सत्य के व्रत को धारण करने वाले
साधकों व्रतियों का अर्थात् ईश्वर के सत्य स्वरूप
को जान मान कर पालन करने वालों का पालक पोषक
रक्षक है। अतः व्रत धारण करने वाला मनुष्य असत्य
को छोड़कर सत्य को धारण करने का संकल्प ले इसी का नाम व्रत है। देव दयानन्द ने आर्य समाज के
नियमों में ”असत्य को छोड़ने और सत्य के ग्रहण करने
के लिए सदा उद्यत रहना चाहिए“ लिखकर मानव
जीवन में सदा व्रत धारण करने की प्रेरणा दी। ”वेद सब
सत्य विद्याआंे की पुस्तक है“ ऐसा कहकर देव दयानन्द ने
वेदानुकूल जीवनयापन को व्रत धारण करने की श्रेणी में रखा है। इस प्रकार व्रत का यौगिक अर्थ है। असत्य
को त्याग कर सत्य को ग्रहण करना और वेदानुकूल जीवन
यापन करना। संस्कृत के एक कवि ने व्रत या उपवास
की सुन्दर परिभाषा दी है। उपाव्रतस्य पापेभ्यो यस्तु
वासो गुणैः सह। उपवासः स विशेय न तु कायस्य शोषणम्।।
अर्थात् पाप असत्य में निवृत होकर अपने में सत्य गुणों का धारण करना इसको ही व्रत वा उपवास कहते हैं।
शरीर को भूख से सुखाने का नाम उपवास नहीं है। ईश्वर
स्तुति प्रार्थना उपासना मंत्रों में प्रथम मंत्र
”विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद भद्रं
तन्न आ सुव।।“ अर्थात् विश्वानि देव
परमपिता परमेश्वर से मनुष्य अपने संपूर्ण दुर्गुण दुव्र्यसनों असत्य को दूर करते हुए मंगलमय गुण कर्म
पदार्थ सत्य को प्राप्त करने की कामना करते हुए
व्रतपति ईश्वर से अपने सत्य व्रत को धारण करने
की सफलता की प्रार्थना कामना करता है। यजुर्वेद में
आदेश है व्रतं कृणुत- यजु. 4/11 अर्थात् व्रत धारण करो,
व्रती बनो। अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य जीवन में असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करता हुआ किस
प्रकार के व्रत धारण करे। मनुष्य जीवन में सभी संभव
दुव्र्यसनों बीड़ी सिगरेट शराब मांस जुआ झूठ
आदि को त्यागकर सदाचारी बनने का व्रत ले। देश सेवा,
परोपकार, ब्रह्मचर्य, कर्तव्य पालन, विद्याभ्यास,
वेदाध्ययन, सन्धया, स्वाध्याय आदि का व्रत लें। इस प्रकार यदि मनुष्य जीवन में दो चार व्रतों को भी धारण
कर ले तो निश्चित रूप से उसका जीवन सफल
हो जायेगा। आओ ! व्रत करें....
या केवल फलाहार आदि पर रहकर उपवास रखते हुए
हठपूर्वक शरीर सुखाने को ही आजकल "व्रत"
माना जाता है। दरअसल व्रत का यह गलत अर्थ लोगों ने
अपनी सुविधानुसार गढ़ लिया है क्योंकि उन्हें व्रत के
सही अर्थ का ज्ञान नहीं है। देव दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें सम्मुल्लास में व्रत की इस
भ्रान्ति का पुरजोर विरोध किया है। महर्षि दयानन्द
लिखते हैं ”गर्भवती या नवविवाहिता स्त्री, लड़के
वा युवा पुरुषों को तो कभी उपवास नहीं करना चाहिए।
जो भूख में नहीं खाते या बिना भूख के भोजन करते हैं वे
दोनों रोग सागर में गोते खाकर दुःख जाते हैं। भ्रान्तियों के कारण भूख से पीडि़त होने पर भी भोजन
इसलिए ना किया जाये कि विशेष दिन
वा एकादशी आदि के दिन अन्न भोजन में पाप बसते हैं
या किसी विशेष दिन उपवास ना करने या भोजन खाने से
कोई देवता नाराज हो जायेगा। भूख से पीडि़त होकर कष्ट
पाने का क्या लाभ ? घर में अन्न होते हुए भी भूखों मरना पाप है। अब प्रश्न उठता है कि यदि भूखे
रहकर उपवास रखना व्रत नहीं है तो व्रत किसे कहते हैं।
यजुर्वेद में व्रत की बहुत सुन्दर परिभाषा दी गई है- अग्ने-
व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तच्छकेयं तन्मे राध्यताम। इदं
अहं अनृतात् सत्यम् उपैमि।। यजु. 1/5 अर्थात्, हे
अग्निस्वरूप व्रतपते सत्यव्रत पारायण साधक पुरूषों के पालन पोषक परमपिता परमेश्वर! मैं भी व्रत धारण
करना चाहता हूँ। आपकी कृपा से मैं अपने उस व्रत का पालन
कर सकूँ। मेरा यह व्रत सफल सिद्ध हो। मेरा व्रत है
कि मैं मिथ्याचारों को छोड़ कर सत्य को प्राप्त
करता हूँ। इस वेद मंत्र में परमपिता परमेश्वर को व्रतपते
कहा गया अर्थात् सत्याचरण करने वाले सदाचारियों का पालक पोषक रक्षक कहा गया।
सत्यस्वरूप ईश्वर सत्य के व्रत को धारण करने वाले
साधकों व्रतियों का अर्थात् ईश्वर के सत्य स्वरूप
को जान मान कर पालन करने वालों का पालक पोषक
रक्षक है। अतः व्रत धारण करने वाला मनुष्य असत्य
को छोड़कर सत्य को धारण करने का संकल्प ले इसी का नाम व्रत है। देव दयानन्द ने आर्य समाज के
नियमों में ”असत्य को छोड़ने और सत्य के ग्रहण करने
के लिए सदा उद्यत रहना चाहिए“ लिखकर मानव
जीवन में सदा व्रत धारण करने की प्रेरणा दी। ”वेद सब
सत्य विद्याआंे की पुस्तक है“ ऐसा कहकर देव दयानन्द ने
वेदानुकूल जीवनयापन को व्रत धारण करने की श्रेणी में रखा है। इस प्रकार व्रत का यौगिक अर्थ है। असत्य
को त्याग कर सत्य को ग्रहण करना और वेदानुकूल जीवन
यापन करना। संस्कृत के एक कवि ने व्रत या उपवास
की सुन्दर परिभाषा दी है। उपाव्रतस्य पापेभ्यो यस्तु
वासो गुणैः सह। उपवासः स विशेय न तु कायस्य शोषणम्।।
अर्थात् पाप असत्य में निवृत होकर अपने में सत्य गुणों का धारण करना इसको ही व्रत वा उपवास कहते हैं।
शरीर को भूख से सुखाने का नाम उपवास नहीं है। ईश्वर
स्तुति प्रार्थना उपासना मंत्रों में प्रथम मंत्र
”विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद भद्रं
तन्न आ सुव।।“ अर्थात् विश्वानि देव
परमपिता परमेश्वर से मनुष्य अपने संपूर्ण दुर्गुण दुव्र्यसनों असत्य को दूर करते हुए मंगलमय गुण कर्म
पदार्थ सत्य को प्राप्त करने की कामना करते हुए
व्रतपति ईश्वर से अपने सत्य व्रत को धारण करने
की सफलता की प्रार्थना कामना करता है। यजुर्वेद में
आदेश है व्रतं कृणुत- यजु. 4/11 अर्थात् व्रत धारण करो,
व्रती बनो। अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य जीवन में असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करता हुआ किस
प्रकार के व्रत धारण करे। मनुष्य जीवन में सभी संभव
दुव्र्यसनों बीड़ी सिगरेट शराब मांस जुआ झूठ
आदि को त्यागकर सदाचारी बनने का व्रत ले। देश सेवा,
परोपकार, ब्रह्मचर्य, कर्तव्य पालन, विद्याभ्यास,
वेदाध्ययन, सन्धया, स्वाध्याय आदि का व्रत लें। इस प्रकार यदि मनुष्य जीवन में दो चार व्रतों को भी धारण
कर ले तो निश्चित रूप से उसका जीवन सफल
हो जायेगा। आओ ! व्रत करें....
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