Sunday, September 29, 2013


* अपने मेँ गुणोँ का अभिमान होने से ही दूसरोँ मेँ दोष दीखते हैँ और दूसरो मेँ दोष देखने से अपना अभिमान पुष्ट होता है ।

* जो साधक अपने दोषोँ को मिटाना चाहता है, उसे दूसरे के दोषोँ की ओर नहीँ देखना चाहिए । दूसरोँ के दोष देखने से अपने दोष पुष्ट होते हैँ और दोषोँ के साथ संबंध हो जाने से नये-नये दोष उत्पन्न होते हैँ ।

* दूसरोँ के दोष देखने से न हमारा भला होता है, न दूसरोँ का ।

* मनुष्य का अन्तःकरण जितना दोषी (मलिन) होता है, उतना ही उसको दूसरोँ मेँ दोष दीखता है । रेडियो की तरह मलिन अन्तःकरण ही दोष को पकड़ता है ।

* यदि आप चाहते हैँ कि कोई भी मुझे बुरा न समझे तो दूसरे को बुरा समझने का आपको कोई अधिकार नहीँ है ।

* किसी को भी बुरा न समझने से भलाई भीतर से प्रकट होती है । भीतर से प्रकट हुई भलाई ठोस और व्यापक होती है ।

* यदि आप अपनी निर्दोषता को सुरक्षित रखना चाहते हैँ तो किसी मेँ भी दोष न देखेँ; न अपने मेँ, न दूसरे मेँ ।

* दूसरे को निर्दोष बनाने की नीयत से उसके दोष देखने मेँ बुराई नहीँ है । बुराई है- दूसरे के दोष दीखनेपर प्रसन्न होना ।

* सबका स्वरुप स्वतः निर्दोष है । अतः पुत्र, शिष्य आदि को स्वरुप से निर्दोष मानकर और उनमेँ दीखनेवाले दोष को आगन्तुक मानकर ही उनको शिक्षा देनी चाहिए, उनके आगन्तुक दोष को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए ।

* अगर हम दूसरे मेँ दोष मानेँगे तो उसमेँ वे दोष आ जायँगे; क्योँकि उसमेँ दोष देखने से हमारा त्याग, तप, बल आदि भी उस दोष को पैदा करने मेँ स्वाभाविक सहायक बन जायँगे, जिससे वह व्यक्ति दोषी हो जायगा और हमारा भी नुकसान होगा ।

- Swami Ramsukhdasji

'अमृत-बिँदु' पुस्तक से,
जय श्री महाकाल |

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