भारतवर्ष में ऐसे दो ही राज्य हैं जहां पग-पग पर दुर्ग मिलते हैं। ये
दो राज्य राजस्थान और महाराष्ट्र है। यदि हम राजस्थान के एक हिस्से से
दूसरे भाग में पदयात्रा करें तो हमें लगभग प्रत्येक १० मील के बाद कोई न
कोई दुर्ग अवश्य मिल जाएगा। दुर्गों को किले के नाम से भी जाना जाता है।
चाहे राजा हो या सामंत, वह दुर्ग को अनिवार्य मानता था। राजा अथवा सामंत
दुर्गों का निर्माण सामरिक, प्रशासनिक एवं सुरक्षा की दृष्टि से कराते थे।
दुर्गों में सामान्यत: राजा व सेनिक रहते थे तथा आम जनता दुर्गों के बाहर
बस्तियों में। मूलत: इन दुर्गों का निर्माण राजा अपने निवास के लिए,
सामग्री संग्रह के लिए, आक्रमण के समय अपनी प्रजा को सुरक्षित रखने के लिए,
पशुधन को बचाने के लिए तथा संपति को छिपाने के लिए किया करते थे।
राजस्थान में दुर्गों के निर्माण का इतिहास काफी पुराना है
जिसके प्रमाण कालीबंगा की खुदाई में प्राप्त हुए हैं। मुसलमानों के आगमन तक
पहाड़ों पर दुर्गों का निर्माण शुरु हो चुका था। अजयपाल ने अजमेर में
तारागढ़ का दुर्ग बनवाकर इस ओर एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। ये दुर्ग ऊँची और
चौड़ी पहाड़ियों पर बनते थे जिनमें खेती भी हो सकती थी। किले के ऊँचे भाग
पर मंदिर एवं राजप्रसाद बनाए जाते थे। दुर्गों के निचले भागों में तालाब व
समतल भूमि पर खेती होती थी। दुर्ग के चारो तरफ ऊँची एवं चौड़ी दीवार बनाई
जाती थी। आपत्ति के समय के लिए बड़े-बड़े भंडार गृह बनाये जाते थे जिनमें
अनाज जमा किया जा सके।
दुर्गों के निर्माण में राजस्थान ने भारतीय दुर्गकला की परंपरा का
निर्वाह किया है। निर्माण कला की दृष्टि से दुर्गों को अलग-अलग वर्गों में
वर्गीकृत किया गया है। अर्थात अलग-अलग उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न
प्रकार के दुर्गों का निर्माण होता है। इन विभिन्न प्रकार के दुर्गों का
उल्लेख करते हुए कौटिल्य ने छ: प्रकार के दुर्ग बताए है। उसने कहा है कि
राजा को चाहिए कि वह अपने राज्य की सीमाओं पर युद्ध की दृष्टि से दुर्गों
का निर्माण करे। राज्य की रक्षा के लिए “औदिक दुर्गों” (पानी के मध्य स्थित
दुर्ग अथवा चारों ओर जल युक्त नहर के मध्य स्थित दुर्ग) व पर्वत दुर्ग
अथवा गिरि दुर्गों (जो किसी पहाड़ी पर स्थित हो) का निर्माण किया जाय।
आपातकालीन स्थिति में शरण लेने हेतु “धन्वन दुर्गों” (रेगिस्थान में
निर्मित दुर्ग) तथा वन दुर्गों (वन्य प्रदेश में स्थित) का निर्माण किया
जाय। इसी प्रकार मनुस्मृति तथा मार्कण्डेय पुराण में भी दुर्गों के प्राय:
इन्हीं प्रकारों की चर्चा की गई है। राजस्थान के शासकों एवं सामंतो ने इसी
दुर्ग परंपरा का निर्वाह किया है।
मारवाड़ के दुर्ग और सुरक्षा व्यवस्था
७वीं शताब्दी तक राजस्थान में अनेक राजपूत राजवंशों का उदय हुआ। इनमें
प्रमुख राजवंश गहलोत, प्रतिहार, चौहान, भाटी, परमार, सोलंकी, तंवर और
राठौड़ आदि थे। इन वंशों की राजधानियां सुदृढ़ दुर्गों में थीं। इनके सीमा
प्रदेशों की पहाड़ियाँ भी प्राय: विविध प्रकार के दुर्गों में सुरक्षित
थीं।
राजस्थान का विस्तृत भू-भाग प्राचीनकाल में नागबंशीय राजपूतों के आधीन
था। नागौर दुर्ग के निर्माता नागबंशी क्षत्रिय थे। निकुम्भ सूर्यवंशी
क्षत्रिय थे और स्वयं को इक्ष्वाकु की संतान मानते थे। १३वीं शताब्दी में
इनका राजस्थान में प्रवेश हुआ। इन्होंने अपनी भूमि की रक्षार्थ सुदृढ़
दुर्गों का निर्माण करवाया। इनका सर्वोत्तम दुर्ग अलवर है।
तेरहवीं शताब्दी के बाद राजस्थान में दुर्ग बनाने की परम्परा ने एक
नवीन मोड़ लिया। इसकाल में ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ, जो ऊपर से चौड़ी थीं और
जिसमें कृषि तथा सिंचाई के साधन उपलब्ध थे, किले बनाने के उपयोग मे लायी
जाने लगीं। नवीन दुर्गों के निर्माण के साथ ही प्राचीन दुर्गों का भी
नवीनीकरण करवाया जाने लगा। चित्तौड़, आबू, कुम्भलगढ़, माण्डलगढ़ आदि
स्थानों के पुराने किलों को मध्ययुगीन स्थापत्य कला के आधार पर एवं नवीन
युद्ध शैली को ध्यान में रखकर पुननिर्मित करवाया गया। महराणा कुम्भा ने
चित्तौड़ दुर्ग की प्राचीर, प्रवेश-द्वारों एवं बुजाç को अधिक सुदृढ़
बनवाया। कुम्भलगढ़ दुर्ग के भीतर ऊँचे से ऊँचे भाग का प्रयोग राजप्रसाद के
लिए तथा नीचे के भाग को जलाशयों के लिए प्रयुक्त किया गया। कुम्भलगढ़ दुर्ग
के चारों ओर दीवारें चौड़ी एवं बड़े आकार की बनवाई गई। जिन दुर्गों में
जलाशयों के लिए व्यवस्था नहीं थी, वहां पानी के कृत्रिम जलाशय बनवाये गये।
मध्यकाल के राजपूत सैन्य-प्रबंध में दुर्गों का विशेष महत्व था। प्रत्येक
राजपूत राजा किले और गढ़ी बनवाने में पूरी रुचि लेता था। ये दुर्ग सैनिक
केन्द्र तो होते ही थे, साथ ही साथ इनमें राजा का निवास स्थान भी होता था।
प्रतिहार नरेश किले बनवाने में और उनकी सामरिक महत्ता पहचानने में बहुत
कुशल थे। जालौर, मण्ड़ोर तथा ग्वालियर दुर्ग इसके प्रमाण हैं। चौहानों के
तारागढ़, हांसी, सिरसा, समाना, नागौर, सिवाना तथा नाडौल के दुर्ग इसके
साक्षी हैं कि चौहान शासक भी दुर्गों एवं उनकी सामरिक महत्ता के प्रति सजग
थे।
चालुक्यों के दुर्ग चौहानों के सम्मान सामरिक महत्व के नहीं थे। उनके
दुर्ग पहाड़ियों पर बनाए गए थे और उनके चारों ओर खाइयां हुआ करती थीं। ये
दुर्ग बहुत ज्यादा लम्बे, चौड़े भू-भाग पर बनाये जाते थे।
अजयगढ़, मनियागढ़, कालिंजर, महोबा एवं नारीगढ़ आदि चंदेल राजाओं के
प्रमुख दुर्ग थे। जब तक पल्लेदार तोप का अविष्कार नही हुआ था और उसके
द्वारा आधा कोस की दूरी से मारकर दुर्ग की प्राचीर एवं तटबंधों को धराशायी
नही किया जा सकता था। तब तक ये दुर्ग राजपूत सैन्य शक्ति एवं प्रबंध की
दृष्टि से महत्वपूर्ण बने रहे और आक्रमणकारी ऐसे दुर्गों को धोखे के बल पर
ही जीत पाए।
मण्ड़ोर दुर्ग
मण्ड़ोर जोधपुर की स्थापना से पूर्व मारवाड़ की राजधानी थी। मण्ड़ोर
का नाम प्राचीन काल में मांडव्यपुर था, जो माण्डव्य ॠषि के नाम पर पड़ा था।
घटियाला से प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि मण्डोर दुर्ग का निर्माण
७वीं शताब्दी के पूर्व हो चुका था। शिलालेखों के अनुसार ब्राह्मण हरिचन्द्र
के पुत्रों ने मण्डोर पर अधिकार कर लिया तथा ६२३ ई० में उन्होंने इसके
चारों ओर दीवार बनवाई।
मण्डोर दुर्ग के अवशेष आज भी विद्यमान हैं। यह दुर्ग एक पहाड़ी के
शिखर पर स्थित था, जिसकी ऊँचाई ३०० से ३५० फुट थी। यह दुर्ग आज खंड़हर हो
चुका है। कुछ खण्डहरों के नीचे पड़ा है तथा कुछ विघटित अवस्था में है।
विघटित अवस्था में विद्यमान दुर्ग को देखकर यद्यपि उसकी वास्तविक निर्माण
विधि का पूरा आकलन नही किया जा सकता तथापि इस विषय में कुछ अनुमान अवश्य
लगाया जा सकता है। पहाड़ी पर स्थित इस दुर्ग के चारों ओर पाषाण निर्मित
दीवार थी। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक मुख्य मार्ग था। दुर्ग की पोल
पर लकड़ी से निर्मित विशाल दरवाजा था। दुर्ग के शासकों के निवास के लिए
महल, भण्डार, सामंतो व अधिकारियों के भवन आदि बने हुए थे। जिस मार्ग द्वारा
नीचे से पहाड़ी के ऊपर किले तक पहुँचा जाता था वह उबड़-खाबड़ था। किले की
प्राचीर में जगह-जगह चौकोर छिद्र बने हुए थे।
मण्ड़ोर को दुर्ग सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से तात्कालीन समय में काफी
सुदृढ़ एवं महत्वपूर्ण समझा जाता था। इसके कारण शत्रु की सेना को पहाड़ी
पर अचानक चढ़ाई करने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था। दुर्ग में
प्रवेश-द्वार इस तरह से निर्मित किए गए थे कि उन्हें तोड़ना शत्रु के लिए
असंभव सा था। किले में पानी की प्रयाप्त व्यवस्था होती थी जिससे आक्रमण के
समय सैनिकों एवं रक्षकों को जल की कमी का सामना नही करना पड़े।
इस दुर्ग की प्राचीर चौड़ी एवं सुदृढ़ थी। दुर्ग के पास ही एक विशाल
जलाशय का निर्माण करवाया गया था। इस जलाशय की सीढियों पर नाहरदेव नाम अंकित
है जो मण्ड़ोर का अंतिम परमार शासक था। दुर्ग की दीवारें पहाड़ी के शीर्ष
भाग से ऊपर उठी हुई थीं। बीच के समुन्नत भाग पर विशाल महल बने थे जो नीचे
के मैदानों पर छाये हुए थे। मण्ड़ोर दुर्ग के बुर्ज गोलाकार न होकर
अधिकांशत: चौकोर थे, जैसे कि अन्य प्राचीन दुर्गों में मण्ड़ोर दुर्ग ७८३
ई० तक परिहार शासकों के अधिकार में रहा। इसके बाद नाड़ोल के चौहान शासक
रामपाल ने मण्ड़ोर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। १२२७ ई० में गुलाम वंश के
शासक इल्तुतनिश ने मण्ड़ोर पर अधिकार कर लिया। यद्यपि परिहार शासकों ने
तुर्की आक्रांताओं का डट कर सामना किया पर अंतत: मण्ड़ोर तुर्कों के हाथ
चला गया। लेकिन तुर्की आक्रमणकारी मण्ड़ोर को लम्बे समय तक अपने अधिकार में
नही रख सके एंव दुर्ग पर पुन: प्रतिहारों का अधिकार हो गया। १२९४ ई० में
फिरोज खिलजी ने परिहारों को पराजित कर मण्ड़ोर दुर्ग अधिकृत कर लिया, परंतु
१३९५ ई० में परिहारों की इंदा शाखा ने दुर्ग पर पुन: अधिकार कर लिया।
इन्दों ने इस दुर्ग को चूंडा राठौड़ को सौंप दिया जो एक महत्वाकांक्षी शासक
था। उसने आस-पास के कई प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। १३९६ ई० में
गुजरात के फौजदार जफर खाँ ने मण्ड़ोर पर आक्रमण किया। एक वर्ष के निरंतर
घेरे के उपरांत भी जफर खाँ को मंडोर पर अधिकार करने में सफलता नही मिली और
उसे विवश होकर घेरा उठाना पड़ा। १४५३ ई० में राव जोधा ने मण्डोर दुर्ग पर
आक्रमण किया। उसने मरवाड़ की राजधानी मण्डोर से स्थानान्तरित करके जोधपुर
ले जाने का निर्णय लिया। राजधानी हटने के कारण मण्ड़ोर दुर्ग धीरे-धीरे
वीरान होकर खंडहर में तब्दील हो गया।
जालौर दुर्ग
जालौर दुर्ग मारवाड़ का सुदृढ़ गढ़ है। इसे परमारों ने बनवाया था। यह
दुर्ग क्रमश: परमारों, चौहनों और राठौड़ों के आधीन रहा। यह राजस्थान में ही
नही अपितु सारे देश में अपनी प्राचीनता, सुदृढ़ता और सोनगरा चौहानों के
अतुल शौर्य के कारण प्रसिद्ध रहा है।
जालौर जिले का पूर्वी और दक्षिणी भाग पहाड़ी शृंखला से आवृत है। इस
पहाड़ी श्रृंखला पर उस काल में सघन वनावली छायी हुई थी। अरावली की श्रृंखला
जिले की पूर्वी सीमा के साथ-साथ चली गई है तथा इसकी सबसे ऊँची चोटी ३२५३
फुट ऊँची है। इसकी दूसरी शाखा जालौर के केन्द्र भाग में फैली है जो २४०८
फुट ऊँची है। इस श्रृंखला का नाम सोनगिरि है। सोनगिरि पर्वत पर ही जालौर का
विशाल दुर्ग विद्यमान है। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालीपुर
और किले का नाम सुवर्णगिरि मिलता है। सुवर्णगिरि शब्द का अपभ्रंशरुप
सोनलगढ़ हो गया और इसी से यहां के चौहान सोनगरा कहलाए।
जहां जालौर दुर्ग की स्थिति है उस स्थान पर सोनगिरि की ऊँचाई २४०८ फुट
है। यहां पहाड़ी के शीर्ष भाग पर ८०० गज लम्बा और ४०० गज चौड़ा समतल मैदान
है। इस मैदान के चारों ओर विशाल बुजाç और सुदृढ़ प्राचीरों से घेर कर
दुर्ग का निर्माण किया गया है। गोल बिन्दु के आकार में दुर्ग की रचना है
जिसके दोनों पार्श्व भागों में सीधी मोर्चा बन्दी युक्त पहाड़ी पंक्ति है।
दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता पहाड़ी पर जाता है।
अनेक सुदीर्घ शिलाओं की परिक्रमा करता हुआ यह मार्ग किले के प्रथम द्वार तक
पहुँचता है। किले का प्रथम द्वार बड़ा सुन्दर है। नीचे के अन्त: पाश्वाç
पर रक्षकों के निवास स्थल हैं। सामने की तोपों की मार से बचने के लिए एक
विशाल प्राचीर धूमकर इस द्वार को सामने से ढक देती है। यह दीवार २५ फुट
ऊँची एंव १५ फुट चौड़ी है। इस द्वार के एक ओर मोटा बुर्ज और दूसरी ओर
प्राचीर का भाग है। यहां से दोनों ओर दीवारों से घिरा हुआ किले का मार्ग
ऊपर की ओर बढ़ता है। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं नीचे की गहराई अधिक होती
जाती है। इन प्राचीरों के पास मिट्टी के ऊँचे स्थल बने हुए हैं जिन पर रखी
तोपों से आक्रमणकारियों पर मार की जाती थी। प्राचीरों की चौड़ाई यहां १५-२०
फुट तक हो जाती है।
इस सुरक्षित मार्ग पर लगभग आधा मील चढ़ने के बाद किले का दूसरा दरवाजा
दृष्टिगोचर होता है। इस दरवाजे का युद्धकला की दृष्टिकोण से विशेष महत्व
है। दूसरे दरवाजे से आगे किले का तीसरा और मुख्य द्वार है। यह द्वार दूसरे
द्वारों से विशालतर है। इसके दरवाजे भी अधिक मजबूत हैं। यहां से रास्ते के
दोनों ओर साथ चलने वाली प्राचीर श्रंखला कई भागों में विभक्त होकर गोलाकार
सुदीर्घ पर्वत प्रदेश को समेटती हुई फैल जाती है। तीसरे व चौथे द्वार के
मध्य की भूमि बड़ी सुरक्षित है। प्राचीर की एक पंक्ति तो बांई ओर से ऊपर
उठकर पहाड़ी के शीर्ष भाग को छू लेती है तथा दूसरी दाहिनी ओर घूमकर मैदानों
पर छाई हुई चोटियों को समेटकर चक्राकार घूमकर प्रथम प्राचीर की पंक्ति से आ
मिलती है। यहां स्थान-स्थान पर विशाल एंव विविध प्रकार के बुर्ज बनाए गए
हैं। कुछ स्वतंत्र बुर्ज प्राचीर से अलग हैं। दोनों की ओर गहराई ऊपर से
देखने पर भयावह लगती है।
जालौर दुर्ग का निर्माण परमार राजाओं ने १०वीं शताब्दी में करवाया था।
पश्चिमी राजस्थान में परमारो की शक्ति उस समय चरम सीमा पर थी। धारावर्ष
परमार बड़ा शक्तिशाली था। उसके शिलालेखों से, जो जालौर से प्राप्त हुए हैं,
अनुमान लगाया जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण उसी ने करवाया था।
वस्तुकला की दृष्टि से किले का निर्माण हिन्दु शैली से हुआ है। परंतु
इसके विशाल प्रांगण में एक ओर मुसलमान संत मलिक शाह की मस्जिद है।
जालौर दुर्ग में जल के अतुल भंड़ार हैं। सैनिकों के आवास बने हुए हैं।
दुर्ग के निर्माण की विशेषता के कारण तोपों की बाहर से की गई मार से किले
के अन्त: भाग को जरा भी हानि नही पहुँची है। किले में इधर-उधर तोपें बिखरी
पड़ी हैं। ये तोपों विगत संघर्षमय युगों की याद ताजा करतीं है।
१२वीं शताब्दी तक जालौर दुर्ग अपने निर्माता परमारों के अधिकार में
रहा। १२वीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकियों ने जालौर पर आक्रमण करके
परमारों को कुचल दिया और परमारों ने सिद्धराज जयसिंह का प्रभुत्व स्वीकार
कर लिया। सिद्धराज की मृत्यु के बाद कीर्कित्तपाल चौहान ने दुर्ग को घेर
लिया। कई माह के कठोर प्रतिरोध के बाद कीर्कित्तपाल इस दुर्ग पर अपना
अधिकार करने में सफल रहा। कीर्कित्तपाल के पश्चात समर सिंह और उदयसिंह
जालौर के शासक हुए। उदय सिंह ने जालौर में १२०५ ई० से १२४९ ई० तक शासन
किया।
गुलाम वंश के शासक इल्तुतमिश ने १२११ से १२१६ के बीच जालौर पर आक्रमण
किया। वह काफी लंबे समय तक दुर्ग का घेरा डाले रहा। उदय सिंह ने वीरता के
साथ दुर्ग की रक्षा की पंरतु अन्तोगत्वा उसे इल्तुतमिश के सामने हथियार
डालने पड़े। इल्लतुतमिश के साथ जो मुस्लिम इतिहासकार इस घेरे में मौजूद थे,
उन्होंने दुर्ग के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा है कि यह अत्यधिक
सुदृढ़ दुर्ग है, जिनके दरवाजों को खोलना आक्रमणकारियों के लिए असंभव सा
है।
जालौर के किले की सैनिक उपयोगिता के कारण सोनगरा चौहान ने उसे अपने राज्य की राजधानी बना रखा था। इस दुर्ग के कारण यहां के शासक अपने आपको बड़ा बलवान मानते थे। जब कान्हड़देव यहां का शासक था, तब १३०५ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन ने अपनी सेना गुल-ए-बहिश्त नामक दासी के नेतृत्व में भेजी थी। यह सेना कन्हड़देव का मुकाबला करने में असमर्थ रही और उसे पराजित होना पड़ा। इस पराजय से दुखी होकर अलाउद्दीन ने १३११ ई० में एक विशाल सेना कमालुद्दीन के नेतृत्व में भेजी लेकिन यह सेना भी दुर्ग पर अधिकार करने में असमर्थ रही। दुर्ग में अथाह जल का भंड़ार एंव रसद आदि की पूर्ण व्यवस्था होने के कारण राजपूत सैनिक लंबे समय तक प्रतिरोध करने में सक्षम रहते थे। साथ ही इस दुर्ग की मजबूत बनावट के कारण इसे भेदना दुश्कर कार्य था। दो बार की असफलता के बाद भी अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर अधिकार का प्रयास जारी रखा तथा इसके चारों ओर घेरा डाल दिया। तात्कालीन श्रोतों से ज्ञात होता है कि जब राजपूत अपने प्राणों की बाजी लगा कर दुर्ग की रक्षा कर रहे थे, विक्रम नामक एक धोखेबाज ने सुल्तान द्वारा दिए गए प्रलोभन में शत्रुओं को दुर्ग में प्रवेश करने का गुप्त मार्ग बता दिया। जिससे शत्रु सेना दुर्ग के भीतर प्रवेश कर गई। कन्हड़देव व उसके सैनिकों ने वीरता के साथ खिलजी की सेना का मुकाबला किया और कन्हड़देव इस संघर्ष में वीर गति को प्राप्त हुआ। कन्हड़देव की मृत्यु के पश्चात भी जालौर के चौहानों ने हिम्मत नही हारी और पुन: संगठित होकर कन्हड़देव के पुत्र वीरमदेव के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा परंतु मुठ्ठी भर राजपूत रसद की कमी हो जाने के कारण शत्रुओं को ज्यादा देर तक रोक नही सके। वीरमदेव ने पेट में कटार भोंककर मृत्यु का वरण किया। इस संपूर्ण घटना का उल्लेख अखेराज चौहान के एक आश्रित लेखक पदमनाथ ने “कन्हड़देव प्रबंध” नामक ग्रंथ में किया है।
जालौर के किले की सैनिक उपयोगिता के कारण सोनगरा चौहान ने उसे अपने राज्य की राजधानी बना रखा था। इस दुर्ग के कारण यहां के शासक अपने आपको बड़ा बलवान मानते थे। जब कान्हड़देव यहां का शासक था, तब १३०५ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन ने अपनी सेना गुल-ए-बहिश्त नामक दासी के नेतृत्व में भेजी थी। यह सेना कन्हड़देव का मुकाबला करने में असमर्थ रही और उसे पराजित होना पड़ा। इस पराजय से दुखी होकर अलाउद्दीन ने १३११ ई० में एक विशाल सेना कमालुद्दीन के नेतृत्व में भेजी लेकिन यह सेना भी दुर्ग पर अधिकार करने में असमर्थ रही। दुर्ग में अथाह जल का भंड़ार एंव रसद आदि की पूर्ण व्यवस्था होने के कारण राजपूत सैनिक लंबे समय तक प्रतिरोध करने में सक्षम रहते थे। साथ ही इस दुर्ग की मजबूत बनावट के कारण इसे भेदना दुश्कर कार्य था। दो बार की असफलता के बाद भी अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर अधिकार का प्रयास जारी रखा तथा इसके चारों ओर घेरा डाल दिया। तात्कालीन श्रोतों से ज्ञात होता है कि जब राजपूत अपने प्राणों की बाजी लगा कर दुर्ग की रक्षा कर रहे थे, विक्रम नामक एक धोखेबाज ने सुल्तान द्वारा दिए गए प्रलोभन में शत्रुओं को दुर्ग में प्रवेश करने का गुप्त मार्ग बता दिया। जिससे शत्रु सेना दुर्ग के भीतर प्रवेश कर गई। कन्हड़देव व उसके सैनिकों ने वीरता के साथ खिलजी की सेना का मुकाबला किया और कन्हड़देव इस संघर्ष में वीर गति को प्राप्त हुआ। कन्हड़देव की मृत्यु के पश्चात भी जालौर के चौहानों ने हिम्मत नही हारी और पुन: संगठित होकर कन्हड़देव के पुत्र वीरमदेव के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा परंतु मुठ्ठी भर राजपूत रसद की कमी हो जाने के कारण शत्रुओं को ज्यादा देर तक रोक नही सके। वीरमदेव ने पेट में कटार भोंककर मृत्यु का वरण किया। इस संपूर्ण घटना का उल्लेख अखेराज चौहान के एक आश्रित लेखक पदमनाथ ने “कन्हड़देव प्रबंध” नामक ग्रंथ में किया है।
महाराणा कुंभा के काल (१४३३ ई० से १४६८ ई०) में राजस्थान में जालौर और
नागौर मुस्लिम शासन के केन्द्र थे। १५५९ ई० में मारवाड़ के राठौड़ शासक
मालदेव ने आक्रमण कर जालौर दुर्ग को अल्प समय के लिए अपने अधिकार में ले
लिया। १६१७ ई० में मारवाड़ के ही शासक गजसिंह ने इस पर पुन: अधिकार कर
लिया।
१८वीं शताब्दी के अंतिम चरण में जब मारवाड़ राज्य के राज सिंहासन के
प्रश्न को लेकर महाराजा जसवंत सिंह एंव भीम सिंह के मध्य संघर्ष चल रहा था
तब महाराजा मानसिंह वर्षों तक जालौर दुर्ग में रहे।
इस प्रकार १९वीं शताब्दी में भी जालौर दुर्ग मारवाड़ राज्य का एक
हिस्सा था। मारवाड़ राज्य के इतिहास में जालौर दुर्ग जहां एक तरफ अपने
स्थापत्य के कारण विख्यात रहा है वहीं सामरिक व सैनिक दृष्टि से भी
महत्वपूर्ण रहा है।
जोधपुर दुर्ग
मेहरानगढ़ दुर्ग, जोधपुर |
मारवाड़ के राठौड़ों की कीर्कित्त और वीरता तथा मान-मर्यादा का प्रतीक
जोधपुर दुर्ग का निर्माण राव जोधा ने करवाया था। राज्यभिषेक के समय राठौड़
राव जोधा की राजधानी मंड़ोर में थी, परंतु सामरिक व सैनिक दृष्टि से
मण्डोर के असुरक्षित होने के कारण जोधा ने नवीन दुर्ग एंव नगर की स्थापना
का निश्चय कर लिया। दुर्ग की पहाड़ी के तीन ओर नगर विस्तार हेतु समतल स्थान
है, वहां नगर बसा हुआ है। इसी दृष्टि से उन्होंने पहाड़ी श्रृंखला के इस
छोर पर दुर्ग निर्माण का कार्य आरंभ करवाया। यह कार्य वृक्ष लग्न, स्वाति
नक्षत्र, ज्येष्ठ सुदि ११, शनिवार संवत् १५१५ दिनांक १२ मई, १४५९ को आरंभ
हुआ।
शहर के समतल भाग से ४०० फुट ऊँची पहाड़ी पर अवस्थित जोधपुर दुर्ग
चारों ओर फैले विस्तृत मैदान को अधिकृत किए हुए है। पहाड़ी की ऊँचाई कम
होने के कारण ऊँची-ऊँची विशाल प्राचीरों के बीच दीर्घकार बुजç बनवाई गई हैं
तथा पहाड़ी को चारों ओर से काफी ऊँचाई तक तराशा गया है जिससे किले की
सुरक्षा में वृद्धि हो। महलों के भाग में ऊँचाई १२० फुट ही रह गई है। किले
का विशाल उन्नत प्राचीर २० फुट से १२० फुट तक ऊँची है जिसके मध्य गोल और
चौकोर बुजç बनी हुई हैं। इनकी मोटाई १२ फुट से ७० फुट तक रखी गयी है।
प्राचीर ने १५०० फुट लंबी तथा ७५० फुट चौड़ी भूमि को घेर रखा है। पहाड़ी की
चोटी पर बनी मजबूत दीवारों के शीर्ष भाग पर तोपों के मोर्चे बने हैं। यहां
कई विशाल सीधी उठी हुई बुजç खड़ी की गई हैं। प्राय: छ: किलोमीटर का भू-भाग
इस व्यवस्था से सुरक्षित है।
नीचे के समतल मैदान से एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता ऊपर की ओर जाता है। इस
रास्ते द्वारा कुछ घुमाव पार करने पर किले का विशाल फाटकों वाला प्रथम
सुदृढ़ दरवाजा आता है। आगे चलकर छ: दरवाजे और हैं। १७०७ ई० में महाराजा
अजीतसिंह ने मुगलों पर अपनी विजय के स्मारक के रुप में फतेहपोल का निर्माण
करवाया था। अमृतपोल का निर्माण राव मालदेव ने करवाया, और महाराजा मानसिंह
ने १८०६ ई० में जयपोल का निर्माण करवाया था। “राव जोधा का फलसा’ किले का
अंतिम द्वार है। लोहापोल पर कुछ वीर रमणियों के छाप लगे हुए है जो उनके सती
होने के स्मारक के रुप में आज भी विद्यमान हैं।
किले की प्राचीर के नीचे दो तालाब हैं जहाँ से सेना जल प्राप्त करती
थी। किले के मध्य में एक कुंड है जो ९० फुट गहरा है तथा इसे पहाड़ी की
चट्टानों के मध्य खोदकर बनाया गया था। किले के अन्त: भाग में शानदार
अट्टालिकाओं और प्रसादों का समूह है जो वस्तु कला का उत्कृष्ट नमूमा है।
लाल पत्थरों से निर्मित ये प्रसाद वस्तुकला के उत्तम उदाहरण हैं। इन
प्रसादों का निर्माण समय-समय पर होने के कारण इनमें विभिन्न वस्तु शैलियों
का समावेश अपने आप हो गया है। उत्कृष्ट कलाकृतियों से अलंकृत पत्थर की काटी
हुई जालियाँ से सजे हुए ये प्रासाद कला के उत्तम नमूने है। किले की ओर
वाले पार्श्व भाग की प्राचीर विशेष रुप से मोटी और ऊँची है। बुजाç की परिधि
यहीं सर्वाधिक है। इस प्राचीर के शीर्ष भाग पर लगी भीमकाय तोपें अब भी
किले की रक्षा के तत्पर प्रतीत होती हैं। इन तोपों में कालका, किलकिला और
भवानी नामक तोपें बहुत बड़ी और भारी हैं।
राजपूतों के इतिहास में राढौड़ अपनी वीरता और शौर्य के लिए बडे
प्रसिद्ध रहे हैं। जोधपुर दुर्ग पर आक्रमणों का प्रांरभ राव बीकाजी के समय
हुआ। राव जोधा ने बीकाजी को स्वतंत्र शासक स्वीकार कर उन्हे छत्र व चंबर
देने की बात कही थी, परंतु जोधा की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी
सूरसिंह ने ये वस्तुएं बीकाजी को नही दी। फलत: बीकाजी ने जोधपुर पर चढ़ाई
कर दी। मारवाड़ राज्य के आन्तरिक कलह के परिणाम स्वरुप मुगलों को मारवाड़
पर अधिकार करने का अवसर मिला। मालदेव के समय १५४४ ई० में शेरशाह सूरी ने
जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि किलेदार बरजांग तिलोकसी ने बड़ी बहादुरी
से दुर्ग की रक्षा करने का प्रयत्न किया, फिर भी शेरशाह दुर्ग पर अधिकार
करने में सफल हो गया। लेकिन मालदेव ने शक्ति संगठित करके पुन: दुर्ग पर
अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
मालदेव की मृत्यु के बाद मारवाड़ राज्य में उत्तराधिकार के प्रश्न को
लेकर संघर्ष छिड़ गया एंव यह राज्य आंतरिक कलह में डूब गया। इससे जोधपुर की
शक्ति काफी क्षीण हो गई। अब मुगलों ने जोधपुर पर अधिकार करने के उद्देश्य
से वि.स. १६२१ के चैत्र माह में हुसैन कुली खाँ के नेतृत्व में सेना भेजी।
राव चन्द्रसेन ने चार लाख रुपये देकर संधि कर ली तथा मुगल सेना वापस लौट
गई। लेकिन मुगलों ने जोधपुर पर पुन: आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के समय राव
चन्द्रसेन ने ६६० सैनिकों सहित किले में रहकर रक्षात्मक युद्ध किया। लेकिन
वह शक्तिशाली मुगल सेना का सामना लंबे समय तक नही कर पाया। अत: उसने मुगलों
से संधि कर जोधपुर दुर्ग उन्हें सौंप दिया। अकबर के काम में मोटा राजा उदय
सिंह ने मुगलों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। अत: जोधपुर दुर्ग उसे लौटा
दिया गया।
सिवाना दुर्ग
सिवाना का दुर्ग जोधपुर से ५४ मील पश्चिम की ओर है। इसके पूर्व में
नागौर, पश्चिम में मालानी, उत्तर में पचपदरा और दक्षिण में जालौर है। वैसे
तो यह दुर्ग चारों ओर रेतीले भाग से घिरा हुआ है परंतु इसके साथ-साथ यहां
छप्पन के पहाड़ों का सिलसिला पुर्व-पश्चिम की सीध में ४८ मील तक फैला हुआ
है। इस पहाड़ी सिलसिले के अंतगर्त हलदेश्वर का पहाड़ सबसे ऊँचा है, जिस पर
सिवाना का सुदृढ़ दुर्ग बना है।
सिवाना के दुर्ग का बड़ा गौरवशाली इतिहास है। प्रारंभ में यह प्रदेश
पंवारों के आधीन था। इस वंश में वीर नारायण बड़ा प्रतापी शासक हुआ। उसी ने
सिवाना दुर्ग को बनवाया था। तदन्तर यह दुर्ग चौहानों के अधिकार में आ गया।
जब अलाउद्दीन ने गुजरात और मालवा को अपने अधिकार में लिया, तो इन प्रांतों
में आवागमन के मार्ग को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह
मार्ग में पड़ने वाले दुर्गों पर भी नियंत्रण करे। इस नीति के अनुसार उसने
चित्तौड़ तथा रणथम्भौर को अपने अधिकार में कर लिया। परंतु मारवाड़ से इन
प्रांतों में जाने के मार्ग तब तक सुरक्षित नही हो सकते थे जब तक जलौर और
सिवाना के दुर्गों पर इसका अधिकार नही हो जाता। इस समय सिवाना चौहान शासक
शीतलदेव के नियंत्रण में था। सीतलदेव ने चित्तौड़ तथा रणथम्भौर जैसे सुदृढ़
दुर्गों को खिलजी शक्ति के सामने धराशायी होते हुए देखा था। इस कारण उसके
मन में भय तो था, परंतु उसने सिवाना के दुर्ग की स्वतंत्रता को बनाए रखने
की कामना भी थी। वह बिना युद्ध लड़े किलों को शत्रुओं के हाथ में सौंप देना
अपने वंश, परंपरा और सम्मान के विरुद्ध समझता था। उसने कई रावों और रावतों
को युद्ध में परास्त किया था एवं उसकी धाक सारे राजस्थान में जमी हुई थी।
अत: उसके लिए बिना युद्ध लड़े खिलजियों को दुर्ग सौंप देना असंभव था।
जब अलाउद्दीन ने देखा कि बिना युद्ध के किले पर अधिकार स्थापित करना
संभव नही है तो उसने २ जुलाई १३०८ ई० को एक बड़ी सेना किले को जीतने के लिए
भेजी। इस सेना ने किले को चारों ओर से घेर लिया। शाही सेना के दक्षिणी
पार्श्व को दुर्ग के पूर्व और पश्चिम की तरफ लगा दिया एंव वाम पार्श्व को
उत्तर की ओर। इन दोनों पाश्वाç के मध्य मलिक कमलुद्दीन के नेतृत्व में एक
सैनिक टुकड़ी रखी गई। राजपूत सैनिक भी शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए किले
के बुजाç पर आ डटे। जब शत्रुओं ने मजनीकों से प्रक्षेपास्रों की बौछार
शुरु की तो राजपूत सैनिकों ने अपने तीरों, गोफनों तथा तेल मे भीगे वस्रों
में आग लगाकर शत्रु सेना पर फेंकना प्रारंभ किया। जब शाही सेना के कुछ दल
किले की दीवारों पर चढ़ने का प्रयास करते तो राजपूत सैनिक उनके प्रयत्नों
को विफल बना देते थे। लंबे समय तक शाही सेना को राजपूतों पर विजय प्राप्त
करने का कोई अवसर नही मिला। इस अवधि में शत्रुओं को बड़ी छति उठानी पड़ी
तथा उसके सेना नायक नाहर खाँ को अपने प्राण गंवाने पड़े। जब मुस्लिम सेना
कई माह तक दुर्ग पर अधिकार में असमर्थ रही तो स्वंय अलाउद्दीन एक विशाल
सेना लेकर आ गया। उसने पूरी सैन्य शक्ति के साथ दुर्ग का घेरा डाल दिया। अब
तक लंबे संघर्ष के कारण दुर्ग में रसद का आभाव हो गया था। जब सर्वनाश निकट
दिखाई देने लगा तो राजपूत सैनिकों ने दुर्ग के दरवाजे खोलकर शाही सेना पर
धावा बोल दिया। वीर राजपूत शत्रुओं पर टुट पड़े और एक-एक करके वीरोचित गति
को प्राप्त हुए। सीतल देव भी एक वीर योद्धा की तरह मारा गया। दुर्ग पर
अधिकार करने के बाद अलाउद्दीन ने कमालुद्दीन को इसका सूबेदार नियुक्त किया।
जब अलाउद्दीन के बाद खिलजियों की शक्ति कमजोर पड़ने लगी तो राव
मल्लीनाथ के भाई राठौड़ जैतमल ने इस दुर्ग पर कब्जा कर लिया और कई वर्षों
तक जैतमलोतों की इस दुर्ग पर प्रभुता बनी रही। जब मालदेव मारवाड़ का शासक
बना तो उसने सिवाना दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया। यहां उसने मस्लिम
आक्रमणकारियों का मुकाबला करने के लिए युद्धोपयोगी सामग्री को जुटाया। अकबर
के समय राव चन्द्रसेन ने सिवाना दुर्ग में रहकर बहुत समय तक मुगल सेनाओं
का मुकाबला किया। परंतु अंत में चन्द्रसेन को सिवाना छोड़कर पहाड़ों में
जाना पड़ा। अकबर ने अपने पोषितों के दल को बढ़ाने के लिए इस दुर्ग को
राठौड़ रायमलोत को दे दिया। लेकिन जब जसबंत सिंह की मृत्यु के पश्चात्
मारवाड़ में स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ तो सिवाना की तरफ भी सैनिक अभियान
आरंभ हो गए। इस तरह मारवाड़ के इतिहास के साथ सिवाना के शौर्य की कहानी
जुड़ी हुई है।
नागौर दुर्ग
मारवाड़ के स्थल दुर्गों में नागौर दुर्ग बड़ा महत्वपूर्ण है। मारवाड़
के अन्य विशाल दुर्ग प्राय: पहाड़ी ऊँचाईयों पर स्थित है। भूमि पर निर्मित
दूसरा ऐसा कोई दुर्ग नहीं है जो दृढ़ता में नागौर का मुकाबला कर सके।
केन्द्रीय स्थान पर स्थित होने के कारण इस दुर्ग पर निरंतर हमले होते रहे।
अत: इसकी रक्षा व्यवस्था भी समय-समय पर दृढ़तर की जाती रही।
नागौर का प्राचीन नाम अहिछत्रपुर बताया जाता है जिसे जांगल जनपद की राजधानी माना जाता था। यहां नागवंशीय क्षत्रियों ने करीब दो हजार वर्षों तक शासन किया। उन्हें आगे चलकर परमारों ने निकाल दिया।
पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर के एक सामंत ने वि०सं० १२११ की वैशाख सुदी २ को नागौर दुर्ग की नींव रखी। राजस्थान के अन्य दुर्गों की तरह इसे पहाड़ी पर नही, साधारण ऊँचाई के स्थल भाग पर बनाया गया। इसके निर्माण की एक विशेषता है कि बाहर से छोड़ा हुआ तोप का गोला प्राचीर को पार कर किले के महल को कोई नुकसान नही पहुँचा सकता यद्यपि महल प्राचीर से ऊपर उठे हुए हैं।
नागौर का प्राचीन नाम अहिछत्रपुर बताया जाता है जिसे जांगल जनपद की राजधानी माना जाता था। यहां नागवंशीय क्षत्रियों ने करीब दो हजार वर्षों तक शासन किया। उन्हें आगे चलकर परमारों ने निकाल दिया।
पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर के एक सामंत ने वि०सं० १२११ की वैशाख सुदी २ को नागौर दुर्ग की नींव रखी। राजस्थान के अन्य दुर्गों की तरह इसे पहाड़ी पर नही, साधारण ऊँचाई के स्थल भाग पर बनाया गया। इसके निर्माण की एक विशेषता है कि बाहर से छोड़ा हुआ तोप का गोला प्राचीर को पार कर किले के महल को कोई नुकसान नही पहुँचा सकता यद्यपि महल प्राचीर से ऊपर उठे हुए हैं।
नागौर का मुख्य द्वार बड़ा भव्य है। इस द्वार पर विशाल लोहे के सीखचों
वाले फाटक लगे हुए हैं। दरवाजे के दोनों ओर विशाल बुर्ज और धनुषाकार शीर्ष
भाग पर तीन द्वारों वाले झरोखे बने हुए हैं। यहां से आगे किले का दूसरा
विशाल दरवाजा है। उसके बाद ६० डिग्री का कोण बनाता तीसरा विशाल दरवाजा है।
इन दोनों दरवाजों के बीच का भाग धूधस कहलाता है। नागौर दुर्ग का धूधस वस्तु
निर्माण का उत्कृष्ट नमूना है। प्रथम प्राचीर पंक्ति किले के प्रथम द्वार
से ही दोनों ओर घूम जाती है। अत्याधिक मोटी और ऊँची इस ५००० फुट लंबी दीवार
में २८ विशाल बुर्ज बने हुए हैं। किले का परकोटा दुहरा बना है। एक गहरी
जलपूर्ण खाई प्रथम प्राचीर के चारों ओर बनी हुई थी। महाराजा कुंभा ने एक
बार इस खाई को पाट दिया था, पर इसे पुन: ठीक करवा दिया गया। प्राचीरों के
चारों कोनों पर बनी बुजाç की ऊँचाई १५० फुट के लगभग है। तीसरे परकोटे को
पार करने पर किले का अन्त: भाग आ जाता है। किले के ६ दरवाजे है जो सिराई
पोल, बिचली पोल, कचहरी पोल, सूरज पोल, धूषी पोल एंव राज पोल के नाम से जाने
जाते हैं। किले के दक्षिण भाग में एक मस्जिद है। इस मस्जिद पर एक शिलालेख
उत्कीर्ण है। इस मस्जिद को शाँहजहां ने बनवाया था।
केन्द्रीय स्थल पर होने के कारण इस दुर्ग को बार-बार मुगलों के आक्रमण
का शिकार होना पड़ा। सन् १३९९ ई० में मण्डोर के राव चूंड़ा ने इस पर
अधिकार कर लिया। महाराणा कुंभा ने भी दो बार नागौर पर बड़े जबरदस्त आक्रमण
किए थे। कुम्भा के आक्रमण सफल रहे एंव इस दुर्ग पर इनका अधिकार हो गया।
मारवाड़ के शासक बख्तसिंह के समय इस दुर्ग का पुननिर्माण करवाया गया।
उन्होंने किले की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत किया। मराठों ने भी इसी दुर्ग
पर कई आक्रमण किए। महाराणा विजयसिंह को मराठों के हमले से बचने के लिए कई
माह तक दुर्ग में रहना पड़ा था।
दुर्गों की व्यवस्था
मारवाड़ के प्रत्येक दुर्ग का सर्वोच्च अधिकारी दुर्गाध्यक्ष होता था।
१२वीं शताब्दी से पहले कोटपाल नामक अधिकारी दुर्ग का प्रमुख होता था। मुगल
काल के बाद इसी पद को किलेदार नाम से जाना जाने लगा। इस अधिकारी के पास
सशस्र सेना होता थी जो रात को किले की निगरानी करती थी। किले के चारों तरफ
भारी एंव हल्की बंदूकों से लैस जवान होते थे। जब भारत में मुगल अपनी बंदूक
शक्ति के साथ आए तो इन किलों की महत्ता कम हो गयी। मुगलों के पास भारी
तोपें थी जिनसे किले की दीवारों को आसानी से तोड़ा जा सकता था। मारवाड़ के
शासकों ने तोपों से किलों की सुरक्षा के लिए किले के चारों तरफ खाइयां
खुदवानी प्रारंभ की। इन खाईयों में बारुद भर दी जाती थी। जब कभी शत्रु सेना
का आक्रमण होता तो बारुद में आग लगा दी जाती थी जिससे शत्रु किले में नही
प्रवेश कर पाता था।
मध्यकाल में मारवाड़ के शासकों ने गढ़ झालना कला का विकास किया। किले पर शत्रु का अधिकार होते देख शासक व सैनिक पहाड़ों या जंगलों में भाग जाते थे जहां पर तोपों से आक्रमण होने की संभावना नही होती थी। बड़े अस्र-शस्र को लेकर इन पहाड़ियों पर शत्रु का चढ़ना संभव नही था।
मध्यकाल में मारवाड़ के शासकों ने गढ़ झालना कला का विकास किया। किले पर शत्रु का अधिकार होते देख शासक व सैनिक पहाड़ों या जंगलों में भाग जाते थे जहां पर तोपों से आक्रमण होने की संभावना नही होती थी। बड़े अस्र-शस्र को लेकर इन पहाड़ियों पर शत्रु का चढ़ना संभव नही था।
दुर्गों का प्रमुख अधिकारी
सामरिक दृष्टि से दुर्गों का विशेष महत्व होने के कारण दुर्ग प्रशासन
में दुर्गपाल अथवा किलेदार का विशेष स्थान होता था। किलेदार राजा का
विश्वास पात्र होता था। उस पर किले की रक्षा एंव संपूर्ण व्यवस्था का
दायित्व होता था। मुसरिफ नामक अधिकारी किलेदार के नियंत्रण में होता था।
किले में कार्यरत सैनिकों का विवरण रखना, उनके अस्रों-शस्रों की जाँच करना
एंव उन्हें आवश्यकतानुसार नए अस्र-शस्र प्रदान करना मसर्रिफ के प्रमुख
कार्य थे।
हाजरी बही से प्राप्त होता है कि जिस क्षेत्र में दुर्ग स्थित होता था
और जहां विशेष खांप की जागीरे अधिक होती थीं, वहां उस खांप के व्यक्तियों
को दुर्ग रक्षा के लिए नही लगाया जाता था। जोधपुर दुर्ग की रक्षा के लिए
चौहानों व राठौड़ों की सेवाएं कम ली जाती थी। ऐसा विद्रोह की संभावना को कम
करने के लिए किया जाता था।
दुर्गों का उपयोग
सुरक्षात्मक युद्ध दुर्गों में रहकर ही किये जाते थे। बाहरी आक्रमण के
समय यदि शत्रुदल अधिक शक्तिशाली होता था तो खुले मैदान में युद्ध करना
अहितकर समक्षकर राजा दुर्ग में सेना सहित शरण ले लेते थे और दुर्ग के द्वार
बंद करवा देते थे। जब शासक किलों में सुरक्षित रहते हुए शत्रु का मुकाबला
करता था तो इस युद्ध को “गढ़ झालणों” कहा जाता था।
मारवाड़ के अधिकांश दुर्गों का उपयोग शासक अपने आवास व सुरक्षात्मक युद्धों के लिए करते थे। युद्ध से पूर्व दुर्ग में रसद आदि की व्यवस्था कर ली जाती थी। दुर्गों में भण्ड़ार होते थे जिनका उपयोग आपातकाल में किया जाता था। अनाज, तेल, घास, अस्र-शस्र और रसद आदि का भंड़ारण किया जाता था।
मारवाड़ के अधिकांश दुर्गों का उपयोग शासक अपने आवास व सुरक्षात्मक युद्धों के लिए करते थे। युद्ध से पूर्व दुर्ग में रसद आदि की व्यवस्था कर ली जाती थी। दुर्गों में भण्ड़ार होते थे जिनका उपयोग आपातकाल में किया जाता था। अनाज, तेल, घास, अस्र-शस्र और रसद आदि का भंड़ारण किया जाता था।
महाराजा मानसिंह के काल में कृष्णाकुमारी विवाद को लेकर जयपुर की
सेनाओं ने जोधपुर दुर्ग को घेर लिया। अत: उसने दुर्ग के भीतर रह कर जयपुर
सेना का मुकाबला करने का निश्चय किया। जयपुर की सेना ने १३ मई १८०७ को
दुर्ग सेना पर प्रबल आक्रमण किया। किन्तु दुर्ग रक्षकों ने दुर्ग पर
शत्रुओं का अधिकार नही होने दिया।
दुर्गों में अस्र-शस्र निर्माण के कारखाने होते थे। मारवाड़ के इन
दुर्गों का उपयोग भगोड़े शासकों व सैनिकों को शरण देने के लिए भी किया जाता
था।
दुर्ग की रक्षा के लिए शत्रु पर आग और गर्म तेल फेकना, बारुद जलाना आदि
उपाय भी काम में लिये जाते थे। १८०७ में जयपुर सेना ने जोधपुर दुर्ग का
घेरा डाला था तो उस समय जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने तीन मन तेल गरम करवा
कर उसे फतेहपोल से नीचे डलवाया था जिससे जयपुर की सेना के बहुत से सैनिक जल
गए तथा उन्होंनेजय महाकाल |
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